व्यक्ति स्वयं के प्रति जागरूक नहीं, धर्म से यह जागरुकता आती है: मनीषप्रभ

इन्दौर।  व्यक्ति स्वयं के प्रति जागरूक नहीं है। वह संसार,  संसार के साधन, संसार के व्यवहार, माया-मोह के प्रति हमेशा जागरूक रहा है, लेकिन चेतना के प्रति जागरुकता नहीं है। वह मोह-माया के गठजोड़ में फंसा है। बचपन में मां की गोद, प्रेम, वात्सल्य चाहता है, पत्नी आने के बाद मां का व्यवहार खराब लगता है क्योंकि पत्नी के प्रति मोह है, राग है। फिर कुछ समय बाद बच्चों के प्रति प्रेम, वात्सल्य की भावना आती है और बुढा़पे में पोता-पोती के मोह में रहता है। वह खुद के हित में स्वयं में जागरुकता नहीं लाता। धर्म से यह जागरुकता आती है।
 उक्त विचार खरतरगच्छ गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य पूज्य मुनिराज मनीषप्रभ सागर ने कंचनबाग स्थित श्री नीलवर्णा पाŸवनाथ जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक ट्रस्ट में चार्तुमास धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।

तेरे-मेरे से आता है भाव में  परिवर्तन

 उन्होंने कहा कि व्यक्ति में स्व व पर की भावना होती है  स्व व पर से व्यक्ति तेरा-मेरा के फेर में रहता है। यह आसक्ति, मोह है। यह भावना से भाव में परिवर्तन आता है। एक व्यक्ति का करोड़ों रुपए के मकान में आग लग गई। भारी भीड़ जमा हो गई। वह उसे देख रोने लगा, मित्र, संबंधी उसे धैर्य रखने का कहते रहे। इसी दौरान पुत्र आया और कहा कि मकान एक दिन पूर्व ही बेच दिया । इससे उस व्यक्ति के भाव में परिवर्तन आ गया और रोना बंद कर दिया, अब चेहरे पर मुस्कान लौट आई।  पुत्र को लाड़ प्यार करने लगा, लेकिन जैसे ही पुत्र ने बताया कि अभी एडवांस नहीं लिया न रजिस्ट्री हुई। इतना सुनते ही वह व्यक्ति पुन: रोने लगा। यह है भाव में परिवर्तन।

धर्म का लक्ष्य है स्वयं के प्रति जागरुकता लाना

मुनिराज मनीषप्रभ सागर ने कहा कि मोह वही रहता है, केवल आधार बदलता है, कभी मां, कभी पत्नी, कभी बच्चे या पोता-पोती। हमें एक लक्ष्य प्राप्त होता है तो दूसरे लक्ष्य के प्रति मोह उत्पन्न होता है। व्यक्ति में मोह, आसक्ति संसार के प्रति, संसार के साधनों के प्रति हमेशा से रही है। हमारा मन संसारी क्रियाकलापों से संचालित होता है। शरीर के प्रति जागरुकता नहीं होने से वह शरीर को खुद का मानता है, इस मोह के कारण उसे ज्ञान नहीं मिलता। धर्म का लक्ष्य है स्वयं के प्रति जागरुकता लाना, चेतना का बोध कराना, जो स्वयं के हित के लिए है। साधु-संतों से भी गलती हो सकती है। श्रावक साधु की गलती की  चर्चा न करें। उस साधु-संत से ही चर्चा करना चाहिए, ताकि साधु खुद ही उसे सुधार सकें, क्योंकि साधु की गलती बाहर बताई जाएगी तो वह जिन शासन की निंदा होती है।

बच्चों को न दें हाईटेक मोबाइल

उन्होंने कहा कि  आज लोग  सोशल मीडिया में साधु-संतों को भी नहीं छोड़ते। मोबाइल बड़ी सुविधा है तो बड़ी दुविधा भी है। जरूरी होने पर ही इसका इस्तेमाह करें। 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को केवल की-पैड वाला मोबाइल दें,  उसमें इंटरनेट की सुविधा न हों, क्योंकि इंटरनेट से मन की विृकति बढ़ती है। बच्चों के कोमल मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
नीलवर्णा जैन श्वेता बर मूर्तिपूजक ट्रस्ट अध्यक्ष विजय मेहता एवं सचिव संजय लुनिया ने जानकारी देते हुए बताया कि खरतरगच्छ गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभ सूरीश्वरजी के सान्निध्य में उनके शिष्य पूज्य मुनिराज श्री मनीषप्रभ सागरजी म.सा. आदिठाणा व मुक्तिप्रभ सागरजी प्रतिदिन सुबह 9.15 से 10.15 तक अपने प्रवचनों की अमृत वर्षा करेंगे।

Leave a Comment