संस्कृति और विरासत की गोद में बैठे भारत से विलुप्त होते संस्कार- अतुल मलिकराम

संस्कृति और विरासत की गोद में बैठे भारत को संस्कारों का देश कहा जाता है। अच्छे संस्कार हमारे देश के लोगों के रोम-रोम में बसते हैं। बात घर आए मेहमान का आदर सत्कार करने की हो या भोजन को देवतुल्य मानने की, माता-पिता और गुरु को भगवान् का दर्जा देने की हो या अन्य प्राणियों की सेवा की, सद्भावना और परोपकार की परिभाषा का ताना-बाना हर एक भारतीय के संस्कारों में जन्म से ही बुना होता है।

वह देश महान है, जिसमें अतिथि देवो भव यानि अतिथि को देव की उपाधि दी जाती है, घर की बहु को लक्ष्मी और अन्नपूर्णा का दर्जा दिया जाता है, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ यानि सभी सुखी रहे और सभी रोगमुक्त हो ऐसी प्रार्थना की जाती है, और संसार के कण-कण में ईश्वर का वास माना जाता है।

यहाँ घर-घर में राम और लक्ष्मण जैसे भाई, राजा जनक जैसे पिता और यशोदा जैसी माँ के प्यार से फलीभूत होता हर इंसान संयुक्त परिवार का सुख भोगता है। एक ऐसा परिवार, जो हर एक सुख और दुःख में अपने घर के सदस्यों के साथ कदम से कदम मिलकर चलता है। यह एकता का वह सबुत है, जो संयुक्त परिवार को पीढ़ियों तक एक सूत्र में बांधे रखता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की इस भूमि के कण-कण में संस्कार बसते हैं। एक बच्चे के जन्म से पहले ही उसके अंदर संस्कारों का समावेश माँ द्वारा शुरू कर दिया जाता है। गीता, पुराण आदि पढ़कर एक माँ अपने बच्चे के जन्म से पूर्व ही अध्यात्म के ये गुण उसमें डालने का प्रयास करने लगती है। अपने से बड़ों और गुरुजनों का सम्मान करना बचपन से ही उसे सिखाया जाता है। भोजन करने से पूर्व हाथ जोड़कर प्रार्थना करना, भोजन को अपने से ऊँचा स्थान प्रदान करना, दान-धर्म करना, समाजसेवा करना, जरूरतमंदों के काम आना, पशु-पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था करना, अपने से पहले दूसरों के हित के लिए सोचना आदि अनेकों गुण परिवार के सदस्य बच्चों को बहुत कम उम्र से ही देने लगते हैं।

संयुक्त परिवार इसमे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन अब एकल परिवार का चलन बढ़ चला है, जिसके कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। आधुनिक दौर में विभिन्न कारणों से बच्चों में संस्कारों यानि कि अच्छी आदतों की कमी देखने को मिल रही है। प्रतिस्पर्धा की होड़ में माता-पिता बच्चों को घर में अकेला छोड़कर प्रतिदिन कमाने चले जाया करते हैं। ऐसे में घर में कोई सदस्य ही नहीं बचता है उन्हें संस्कारित करने के लिए। दादी-नानी की कहानियों में जहान भर के ज्ञान का भण्डार होता है, जिससे नई पीढ़ी के बच्चे पूर्णतः वंचित हो चुके हैं। जिद्दी स्वभाव के धनी बच्चे अपनी ही दुनिया में मग्न दिखाई देने लगे हैं। न ही उनमें दूसरों से घुल-मिलकर रहने की कला बची है और न ही अपने से बड़ों का अदब। संस्कारों के इस देश में विलुप्त होते संस्कार या नई पीढ़ी की संस्कारहीनता वास्तव में बहुत बड़ी विडम्बना है।

हमें इस बात की महत्ता को समझना होगा कि नमस्ते करना, प्रकृति से प्रेम करना, सात्विक भोजन करना, घर में दाखिल होने से पहले मुँह-हाथ धोना, मरणोपरांत दाह संस्कार करना, तेरह दिन घर में ही रहना, और ऐसे बहुत से संस्कारों का सम्पूर्ण विश्व वर्तमान हालातों को देखते हुए सख्ती से पालन कर रहा है और विश्व गुरु भारत की संस्कृति को अपना रहा है, और एक हम हैं कि दिन-प्रतिदिन अपने संस्कारों से पिछड़ते जा रहे हैं। अपने से छोटों को संस्कारित करना भी तो संस्कार की श्रेणी में ही आता है। लेकिन हम नई पीढ़ी को इन संस्कारों से वंचित कर रहे हैं। हम समाजसेवा से दूर हो चुके हैं, पशु-पक्षियों का ध्यान रखने का अब हमारे पास समय ही नहीं है।

समय पर भोजन करना तथा समय पर सोना अब हमारी दिनचर्या से कोसों दूर हो चुके हैं। ‘अहिंसा परमो धर्म’ और ‘दूसरों की मदद करो, बड़े आदमी बन जाओगे’ जैसे महान कथन, महज कथन होकर रह गए हैं। हमें देखकर ही बच्चे सबकुछ सीखते हैं। इसलिए बच्चों पर पड़ रहे इन दुष्प्रभावों के भागी कहीं न कहीं हम ही हैं। हमें बच्चों को उनके सबसे अच्छे दोस्त, उनके दादा-नाना का साथ लौटाना होगा। संयुक्त परिवार के धनी देश के बिखरे परिवारों को एक बार फिर से जोड़ना होगा, जरूरतमंदों की सहायता और समाजसेवा बच्चों के हाथों से कराना होगी, ताकि वे इसकी महत्ता को समझ सकें। भारत की संस्कृति और संस्कार हमारी विरासत है, इसे विलुप्त न होने दें बल्कि अमर बनाए रखने में योगदान दें।

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