सॉॅफ्ट टॉयज और कारपेट है अस्थमा का बडा कारण

इंदौर । घरो में विलासिता के नाम पर लगने वाले कारपेट , वेलवेट और पर्दे अस्थमा का सबसे बडा कारण है। इसके साथ ही साफ्ट टॉयज से भी घरो में अस्थमा तेजी से फैल रहा है। इंदौर में ही पिछले दस सालो में अस्थमा के मरीजों की संख्या 20 प्रतिषत तक बढ गई है। वयस्क आबादी का 5 से 8 प्रतिषत अ्रस्थमा से पीडित है। सफाई में इंदौर के अव्वल आने के बाद भी वाहनों की संख्या बढने से अस्थमा के मरीज बढ गए है। 

उपरोक्त जानकारी देते हुए चेस्ट फिजिषियन डॉ प्रमोद झंवर और प्लमोनोलाजिस्ट डॉ मिलिंद बाल्दी ने बताया कि इस बीमारी से बचाने के लिए सिप्ला के सामाजिक सरोकार अभियान  ब्रीद फ्री द्वारा  बेरोक जिंदगी यात्रा निकाली जा रही है। ये यात्रा इंदौर और आस पास के क्षेत्रों में घुमेगी और लोगों को अस्थमा बीमारी के प्रति जागृत कर मरीजो की निष्ुल्क जांच व दवा वितरण करेगी ।

इस यात्रा में एक गाडी में डॉक्टर्स की टीम स्क्रिनिंग मषीनों के साथ षहरों और गांवो में घुमेगी और लोगों की निषुल्क जांच करेगी । इस दौरान डॉक्टर्स की टीम लोगों को बीमारी के बचाव , उपचार व सावधानियों के बारे में बताएंगे । यह यात्रा इंदौर से होते हुए षुजालपुर , अकोदिया , नलखेडा , जीरापुर , सोनकच्छ , देवास , भोपाल , होषगांबाद इटारसी , तंदुखेडा , गाडरवाडा , होते हुए जबलपुर पर समाप्त होगी । 21 जनवरी तक चलने वाली दौरान लोगों को धुम्रपान छोडने व नियमित खानपान व्यायाम आदि के बारे मे भी बताया जाएगा ताकि लोग बीमारी से बचे रह सके।

इदांर में इस यात्रा को चिकित्सक श्री प्रमोद झंवर और डॉ मिलिंद बाल्दी ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया । चिकित्सकों ने बताया कि अस्थमा बीमारी के बढने की सबसे बडी वजह वाहनो की संख्या में इजाफा और विकास के नाम पर पेडों की अंधाधुंघ कटाई है।  षहर में वाहनों की संख्या का लगातार बढना अस्थमा के पेषेंट बढने का सबसे बडा कारण है। लाखों गाडियों से निकलने वाला धुंआ दमा का सबसे बडा कारण है।

उन्होने बताया कि कुल वयस्क आबादी का 5 से 8  प्रतिषत तथा बच्चो की आबादी का 5 प्रतिषत अस्थमा से पीडित है। सबसे बडी बात ये है के मरीजों को कई बार पता भी नही होता की वो इस गंभीर बिमारी की चपेट में आ चुके है।चिकित्सकों ने बताया कि अस्थमा पर पूर्ण नियंत्रण संभव है इसका मरीज एक सामान्य जीवन जी सकता है। अस्थमा के लिए इनहेलर थेंरेपी ही बेस्ट है । यह सीधे रोगी के फेफडो मे पंहुचकर अपना प्रभाव तुरंत दिखाना षुरु कर देती हैं ।

बीसवीं सदी के पहले 50 सालों में अस्थमा के इलाज के लिए गोलियां, सिरप और इंजेक्शन के रूप में दवाएं इस्तेमाल की जाती थीं। हालांकि उनसे मरीजों की जीवन प्रत्याशा बढ़ाने में बहुत कम मदद मिलती थी। बहुत से मरीज उचित इलाज न मिलने के कारण दम तोड़ देते थे। 1950 के दशक में कॉर्टिसन नाम के नेचुरल स्टेरॉयड का प्रयोग अस्थमा के इलाज के लिए किया जाने लगा। 1956 में एमडीआई (मीटर्ड डोज इनहेलर) का प्रयोग शुरू किया गया।

इससे अस्थमा के इलाज में एक मेडिकल क्रांति आई। इस डिवाइस से दवा सीधे फेफड़ों में पहुंचाई जाती थी और मरीजों को तुरंत आराम मिलता है और वह सुरक्षित रहते हैं। अस्थमा और इनहेलेशन थेरेपी के प्रति लोगों का नजरिया बदलने में 6 दशकों का समय लगा। जीवन की गुणवत्ता पर अस्थमा का प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है, जितना कि मरीज सोचते हैं। इस बीमारी के इलाज की अवधारणा रोगियों के दिमाग में ज्यादा नियंत्रित है।

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