पहले से ज्यादा आसान और तेज़ हुआ ग्लूकोमा का उपचार

देश की पहली अल्ट्रा-मॉर्डर्न ग्लुकोमा ट्रीटमेंट साइक्लो जी एमपी 3 लेसर तकनीक शहर के राजस आई एंड रेटिना रिसर्च सेंटर में

इंदौर। ग्लूकोमा यानि काँचबिंद एक तरह की आँखों की बीमारी है, जिसमें आंख का प्रेशर इतना बढ़ जाता हैं कि उसके कारण आँख की नसों पर प्रभाव पड़ने लगता है। सही समय पर इलाज ना किया जाए तो इसके कारण मरीज अँधा भी हो सकता है। देश में अंधत्व का मोतियाबिंद के बाद दूसरा सबसे बड़ा कारण ग्लूकोमा ही है। देश भर में इसके 12 मिलियन से अधिक मरीज है। शहर में भी बड़ी संख्या में पुरे प्रदेश से मरीज ग्लूकोमा का इलाज कराने आते हैं परन्तु सभी प्रकार के ग्लूकोमा का सटीक निदान ऑय ड्रॉप्स या गोलियों से संभव नहीं होता है। डाइबिटीज, आंख के पर्दे की खून की नस बंद होने या पुतलियां बदलने के ऑपरेशन के बाद होने वाला ग्लूकोमा (काँचबिंद) अधिक जटिल होता है। इसका इलाज अब ऑपरेशन के बजाए इस नई साइक्लो जी एमपी 3 लेज़र तकनीक से संभव है। इसी तरह मरीज की पुतली में सूजन या दवाइयों का असर नही होने पर यह अत्याधुनिक लेज़र तकनीक काफी कारगर है। आंख के एक से अधिक ऑपरेशन होने या ग्लूकोमा की सर्जरी फ़ैल होने की स्थिति में भी आंख का प्रेशर कम करने के लिए मरीज को लेसर ट्रीटमेंट की सलाह दी जाती है। शहर में ग्लूकोमा के डायोड लेसर ट्रीटमेंट की सुविधा पहले से उपलब्ध है परन्तु यह प्रक्रिया अधिक जटिल है, साथ ही इसमें थोड़ा खतरा भी होता है जबकि राजस आई एंड रेटिना रिसर्च सेंटर में लगाई गई ग्लूकोमा साइक्लो जी एमपी 3 लेज़र ट्रीटमेंट की नई मशीन अत्याधुनिक तकनीक से लेस है। दुनिया भर में ऐसी एफडीए द्वारा अप्रूवड सिर्फ 1200 मशीनें लगाई गई है और भारत में यह पहली मशीन लगाई गई है जो इंदौर में है। एडवांस्ड ग्लूकोमा का इलाज करने में सक्षम इस मशीन को इंस्टॉल करने के लिए खासतौर पर आइरिडेक्स कॉर्पोरेशन कैलिफ़ोर्निया से एक्सपर्ट फडी सलाहत शहर आए हैं।

एडवांस्ड ग्लूकोमा भी होगा ठीक

इस मशीन की गुणवत्ता और मरीज को इससे होने वाले फायदों के बारे में राजस आई एंड रेटिना रिसर्च सेंटर की ग्लूकोमा एक्सपर्ट डॉ तनुजा काटे कहती है कि पहले उपलब्ध मशीनों की अपनी सीमाएं थी। इससे एडवांस्ड ग्लूकोमा का इलाज कठिन था। कई बार मरीज की फिजिकल कंडीशन या अन्य कारणों से ऑपरेशन करना संभव नहीं होता। ऐसे में यह डायोड लेज़र साइक्लोफोटोकॉआगुलेशन तकनीक काफी मददगार साबित होती है। ऑपरेशन की तुलना में यह ज्यादा तेज़ और सुरक्षित है साथ ही इसमें मरीज को फॉलो अप के लिए बार-बार बुलाने की जरुरत भी नहीं होती। जिससे शहर के बाहर वाले मरीजों को फायदा होगा। इसमें किसी तरह का चीरा नहीं लगता इसलिए रिकवरी भी तेज़ी से होती है। परेशानी अधिक होने पर कुछ महीनों के अंतराल के बाद इस प्रक्रिया को दोबारा भी किया जा सकता है, जिससे आंख की रोशनी बचाने में मदद मिलती है। डॉ. तनुजा ने इस नवीन तकनीक से गुरुवार को 5 प्रोसीजर भी किए।

पहले से ज्यादा सुरक्षित हुए लेज़र ट्रीटमेंट

कैलिफ़ोर्निया से आए एक्सपर्ट फडी सलाहत बताते है कि पुरानी मशीन में लेज़र चिकित्सा के दौरान आँखों के टिशुओं के क्षतिग्रस्त होने का खतरा बना रहता था और वह एडवांस्ड ग्लूकोमा के इलाज में भी पूर्णतः सक्षम नहीं थी जबकि नई मशीन खासतौर पर ग्लूकोमा के जटिल केस हल करने में काम आएगी। इसकी नई माइक्रो पल्स टेक्नोलॉजी के कारण यह आँखों के टिशुओं को क्षति पहुंचाए बिना इलाज करती है। लेज़र ट्रीटमेंट का कुल समय भी बस 3 से 4 मिनट का ही है। इससे काफी तेज़ी से ज्यादा मरीजों की परेशानी को दूर किया जा सकता है। मरीज भी जल्दी अपने काम पर दोबारा लौट सकते हैं।

40 के बाद हर वर्ष कराए आँखों की जाँच

राजस आई एंड रेटिना रिसर्च सेंटर की डॉ उर्विजा चौधरी ने बताया कि जिन लोगों को डाइबिटीस है, उनकी आंख में कभी चोट लगी है या उनके परिवार में किसी को ग्लूकोमा है, उन्हें इस बीमारी से अधिक सचेत रहने की जरुरत है। यह छोटे बच्चे से लेकर वयोवृद्ध तक किसी को भी हो सकती है। देखा गया है कि लम्बे समय तक कुछ दवाइयां लेने के कारण भी ग्लूकोमा के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इससे आँखों को हुई क्षति को ठीक नहीं किया जा सकता पर आँखों की रोशनी बचाने के लिए जरुरी है कि सही समय पर इसके लक्षणों को पहचान कर इसका इलाज शुरू किया जाए। इसके लिए रूटीन आई चेकअप कराते रहना जरुरी है। खासकर 40 वर्ष की उम्र के बाद जब इसका खतरा अधिक होता है। राजस आई एंड रेटिना केअर रिसर्च सेंटर में इस अत्याधुनिक मशीन से इलाज किया जा रहा है यह जानकारी हॉस्पिटल के मैनेजर राहुल प्रधान ने दी।

 

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