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लैंगिक हिंसा की रोकथाम जरूरी ताकि किशोरी लड़कियों का हो सके समग्र विकास : दसरा
- • यूनिसेफ इंडिया के मुताबिक “देश की 20% किशोरियों को झेलनी पड़ती है शारीरिक हिंसा, वहीं 33% विवाहित किशोरी लड़कियों ने अपने पतियों द्वारा की गयी हिंसा को झेला है। पीड़ित बच्चों में 88% केवल 12-18 साल की लड़कियां होती हैं।“
- • लिंग आधारित हिंसा और इसके चलते किशोरी लड़कियों के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों (sexual and reproductive health and rights) पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के खिलाफ दसरा ने अपने सहयोगी संस्थाओं के साथ मिल कर उठायी आवाज
- • लॉकडाउन में बढ़े लैंगिक हिंसा के मामले बढ़ा सकते हैं झारखंड में टीनएज प्रेगनेंसी के मामले; राज्य में टीनएज प्रेगनेंसी की मौजूदा दर 12% जो है राष्ट्रीय औसत से डेढ़ गुना ज्यादा
रांची, दिसंबर, 2020: दसरा, जो एक प्रमुख भारतीय सामाजिक संस्था है, ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रति वर्ष मनाये जाने वाले ‘16 डेज ऑफ़ एक्टिविज्म अगेंस्ट जेंडर-बेस्ड वॉयलेंस’ (The 16 Days of Activism against Gender-Based Violence) के तहत लैंगिक हिंसा और इसके चलते किशोरी लड़कियों के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकार पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के खिलाफ आवाज उठाने की पहल की है।
16 दिनों तक चलने वाले इस अभियान के तहत दसरा ने विभिन्न सहयोगी संस्थाओं – यूनीसेफ इंडिया, लव मैटर्स इंडिया, युवा, जेंडर एट वर्क और प्लूक टीवी – के साथ मिलकर 4 दिसंबर, 2020 को एक ट्वीटचैट का आयोजन किया और इसके तहत लैंगिक हिंसा (gender-based violence) और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकारों (sexual reproductive health and rights) के बीच के महत्वपूर्ण संबंधों पर विचार-विमर्श किया, ताकि इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलायी जा सके और आवाज उठायी जा सके।
इसके तहत दसरा ने आदिवासी लड़कियों के बीच लिंग और यौन समस्या पर काम करने वाली एक शोध छात्रा श्रीलेखा चक्रवर्ती के पॉडकास्ट का भी आयोजन किया जिसमें लैंगिक हिंसा और युवा लड़कियों के जीवन के अनुभवों पर चर्चा की गई और संभावित समाधानों की पहचान की गई।
इस ट्वीटचैट के दौरान टीनएज लड़कियों के प्रति होने वाली लैंगिक हिंसा (gender-based violence) और उनके यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकारों (sexual reproductive health and rights) के बीच के संबंधों पर चर्चा करते हुए यूनिसेफ इंडिया, लव मैटर्स इंडिया, युवा, जेंडर एट वर्क और प्लूक टीवी ने अपने विभिन्न अनुभव, निष्कर्ष और ट्रेंड्स को साझा किया।
समाज में व्याप्त लैंगिक हिंसा की गहरी जड़ों के बारे में बात करते हुए यूनिसेफ इंडिया ने ट्वीट किया “देश की 20% किशोरियों को शारीरिक हिंसा झेलनी पड़ती है, वहीं 33% विवाहित किशोरी लड़कियों ने अपने पतियों द्वारा की गयी हिंसा को झेला है। पीड़ित बच्चों में 88% केवल 12-18 साल की लड़कियां होती हैं।“
शैलजा मेहता, एसोसिएट डायरेक्टर, दसरा ने इस विषय पर अपने विचार साझा करते हुए कहा, “किशोरी लड़कियों की जरूरतों, अधिकारों और आकांक्षाओं को समग्र रूप से देखने की जरूरत है क्योंकि लैंगिक हिंसा और लड़कियों के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकार एक-दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं और इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। लिहाजा इस विषय पर हमें न केवल जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है बल्कि अपने अंदर, अपने परिवार और समाज की सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है ताकि लैंगिक हिंसा की वारदातों को रोका जा सके और लैंगिक समानता की ओर बढ़ा जा सके।
इसके लिए जरूरी है कि इन मुद्दों के केंद्र में लड़कियां और महिलाएं हों, ताकि समस्याओं की न केवल उचित पहचान हो बल्कि उनका समाधान भी तलाशा जा सके और इस एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाया जा सके जिसमें सामाजिक संगठन समन्वयक (facilitator) की भूमिका निबाहें।“
यूएन ट्रस्ट फंड टू इंड वॉयलेंस एगेंस्ट वीमेन (UN Trust Fund To End Violence Against Women या यूएन ट्रस्ट फंड) द्वारा दुनिया भर के 122 सामाजिक एवं गैर सरकारी संस्थाओं के बीच किये गए एक सर्वे के मुताबिक कोविड 19 महामारी से लड़ने के लिए दुनिया के विभिन्न देशों में मार्च से सितम्बर 2020 के बीच लगाये गये लॉकडाउन के दौरान महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा में अत्यधिक बढ़ोतरी की सूचना 85% संस्थाओं ने दी।
इसी तरह, राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) को मार्च से सितंबर 2020 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराधों की 13,410 शिकायतें मिलीं, जिनमें से 4,350 शिकायतें घरेलू हिंसा की थीं। इसके अलावा, दसरा की ‘लॉस्ट इन लॉकडाउन’ रिपोर्ट के अनुसार, किशोरी लड़कियों के साथ काम करने वाले 24.5% संगठनों ने बताया कि कोविड-19 महामारी के दौरान उनके खिलाफ हिंसा में वृद्धि देखी गई है। आंकड़े, जाहिर तौर पर बताते हैं कि कोविड-19 महामारी के बाद से महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि हो रही है।
यहां यह भी देना महत्वपूर्ण है कि झारखंड में किशोरियों के लिए सबसे गंभीर खतरों में से एक है किशोरावस्था में गर्भधारण यानी टीनएज प्रेगनेंसी, जिसके स्वास्थ्य संबंधित गंभीर खतरे और गहरे सामाजिक-आर्थिक प्रभाव हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) के चौथे दौर के आंकड़ों के मुताबिक किशोरावस्था में गर्भधारण यानी टीनएज प्रेगनेंसी के मामले में झारखंड की दर 12% है जो भारत के राष्ट्रीय औसत 8% से डेढ़ गुना ज्यादा है और यह आदिवासी बहुल राज्य इन मामलों में देश में पांचवे स्थान पर है।
इसी तरह बाल विवाह के मामलों में अपने पड़ोसी राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार के बाद झारखंड देश में तीसरे स्थान पर है। ऐसे में, कोविड 19 महामारी और उससे निपटने के लिए लगाये गये लॉकडाउन के दौरान बढ़े लैंगिक हिंसा के मामलों के चलते, झारखंड में किशोरावस्था में गर्भधारण यानी टीनएज प्रेगनेंसी की दर और अधिक बढ़ सकती है और हजारों लड़कियां आगे बढ़ने के विभिन्न अवसरों से वंचित हो सकती हैं।
घंटे भर चले इस ट्वीट चैट में दसरा और अन्य संगठनों ने लैंगिक हिंसा के विभिन्न प्रकार और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकार पर उनके नकारात्मक संबंधों पर चर्चा की गयी। साथ ही, इन बातों पर भी विचार किया गया कि कैसे शिक्षा और युवाओं की भागीदारी बढ़ाने से इन दोनों समस्याओं का मुकाबला करने में मदद मिल सकती है और सभी संबंधित पक्षों के एक साथ आने से एक संस्थागत बदलाव लाया जा सकता है। इस ज्ञानवर्धक, रोचक और समाधान केंद्रित चर्चा में मिसिंग और आईसीआरडब्ल्यू एशिया जैसे अन्य संगठन भी शामिल हुए।
‘16 डेज ऑफ़ एक्टिविज्म अगेंस्ट जेंडर-बेस्ड वायलेंस’ एक वार्षिक अंतरराष्ट्रीय अभियान है जो 25 नवंबर यानी ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन का अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ से लेकर 10 दिसंबर यानी विश्व मानवाधिकार दिवस तक चलाया जाता है। इस वर्ष (2020) के लिए इस अभियान का वैश्विक थीम – ‘ऑरेंज द वर्ल्ड: फंड, रिस्पोंड, प्रीवेंट, कलेक्ट!’ (‘Orange the World: Fund, Respond, Prevent, Collect!’) है।
इस अभियान का उद्देश्य महिलाओं एवं लड़कियों के खिलाफ हिंसा की रोकथाम और उन्मूलन के लिए आवाज उठाना है और इसके लिए दुनिया भर में विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं ताकि इन मुद्दों के प्रति जागरूकता फैलायी जा सके और इससे निपटने के लिए एक संगठित रणनीति प्रस्तुत की जा सके।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड या यूएनएफपीए) का मानना है कि “लैंगिक हिंसा इसके पीड़ितों के स्वास्थ्य, सम्मान, सुरक्षा और स्वायत्तता को बुरी तरह प्रभावित करती है, लेकिन जानते-बूझते हुए भी इसे अनदेखा कर दिया जाता है। लैंगिक हिंसा की शिकार लड़कियां यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य (sexual and reproductive health) से संबंधित बुरे परिणाम भुगत सकती हैं, जिनमें जबरन और अवांछित गर्भधारण, असुरक्षित गर्भपात, दर्दनाक फिस्टुला, एचआईवी सहित यौन संक्रमण और यहां तक कि मृत्यु भी शामिल है।“
लैंगिक हिंसा तेजी से एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का रूप ले रही है जो हजारों महिलाओं और लडकियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं और उनके यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य (sexual and reproductive health) सहित उनके स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। इन समस्याओं को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है क्योंकि लॉकडाउन के कारण कोविड-19 महामारी ने हजारों महिलाओं और युवा लड़कियों को उनके घरों तक सीमित कर दिया है और इसके चलते लिंग आधारित हिंसा के मामलों में काफी बढ़ोतरी हुई है।
इसके अतिरिक्त, ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि अपराधी के बजाय पीड़ित को ही दोषी करार दे दिया जाता है। लिंग आधारित हिंसा के बारे में बात करते हुए जैक्सन काट्ज, जो एक अमेरिकी शिक्षक और लेखक हैं, पीड़ित को दोषी ठहराने की सोच पर सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि हमारी पूरी सोच महिलाओं और उनके उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, पसंद-नापसंद वगैरह के बारे में सवाल उठाने पर केंद्रित है।
महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा और अन्याय न केवल उनके लिए बल्कि पूरे समाज के लिए विनाशकारी है और पूरे समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। किसी भी प्रकार की हिंसा एक अच्छे और न्याय आधारित समाज के निर्माण के लिए हानिकारक है।
अक्सर देखा गया है कि यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर जानकारियां लड़कियों और युवतियों तक उचित रूप में नहीं पहुंच पाती हैं या उनकी अनदेखी की जाती है, जिसके चलते समाज में लैंगिक हिंसा से जुड़े अपराध बढ़ते हैं। जानकारी और संबंधित स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी के चलते लड़कियों और युवतियों को एचआईवी, अवांछित गर्भधारण सहित सेक्सुअली ट्रांसमिटेड इन्फेक्शन (एसटीआई) जैसी समस्याओं के बढ़ने के खतरा होता है। साथ ही, परिवार नियोजन के साधनों तक पहुंच का अभाव या परिवार के दबाव में अपने स्वास्थ्य संबंधी फैसलों को खुद नहीं ले पाने जैसे कारणों का दीर्घकालीन नकारात्मक प्रभाव लड़कियों और महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ सकता है।