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कामनाओं की पूर्ति करने वाला संन्यासी नहीं हो सकता
स्वामी परमानंद गिरी के 63वें संन्यास जयंती दिवस पर स्वर्ण मुकुट पहनाकर किया अभिनंदन
इंदौर। भारतीय संस्कृति में मनुष्य के जन्म का प्रयोजन नर से नारायण बनना है। विवाह के बाद कन्या लक्ष्मी और युवक नारायण बन जाते हैं, ऐसी मान्यता है। सन्यास का मतलब कामनाओं वाले कर्मों का त्याग करना। कामनाओं की पूर्ति करने वाला सन्यासी नहीं हो सकता। काम, क्रोध, लोभ और मोह से मुक्त हुए बिना सन्यास पूरा नहीं हो सकता। ईश्वर के प्रति संपूर्ण विश्वास किए बिना हमारा जीवन सार्थक नहीं हो सकता। एकमात्र ईश्वर ही है जिसे हमें पूर्ण रूप से स्वीकार करना है। हमारे शास्त्र, व्यक्तित्व और गुरू भी कई बिंदुआंे पर पूरी तरह स्वीकार नहीं किए जाते। कामनाएं शांति, मोक्ष और अध्यात्म के मार्ग की बाधा होती है।
ये दिव्य और प्रेरक विचार हैं युगपुरूष स्वामी परमानंद गिरी के, जो उन्होने पंचकुईया स्थित परमानंद हास्पिटल परिसर में अपने 63 वें सन्यास जयंती महोत्सव एवं नवनिर्मित श्री अनंतेश्वर महादेव परिवार के प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में व्यक्त किए। इस अवसर पर समाजसेवी स्व. धनराज-दुर्गादेवी शादीजा के संकल्प अनुरूप तुलसी-सोनम शादीजा ने स्वर्ण मुकुट पहना कर स्वामी परमानंदजी का अभिनंदन किया।
यह एक भावपूर्ण प्रसंग था, जब सैकड़ों भक्तों ने खड़े होकर संन्यास की 63वीं जयंती पर 63 दीपों से उनकी आरती उतारी और कतारबद्ध होकर उनके शुभाशीष प्राप्त किए। कार्यक्रम में अखंड धाम के महामंडलेश्वर डाॅ. स्वामी चेतन स्वरूप, हरिद्वार महामंडलेश्वर स्वामी ज्योतिर्मयानंद, साध्वी चैतन्य सिंधु सहित अन्य तीर्थस्थलों के संत-विद्वान भी उपस्थित थे।
प्रारंभ में आयोजन समिति की ओर से जान्हवी-पवन ठाकुर, प्राचार्य डा. अनिता शर्मा, प्रेम बाहेती, नारायण सिंघल, सीए विजय गोयनका, राजेश अग्रवाल, किशनलाल पाहवा, रघुनाथ प्रसाद गनेरीवाल, विष्णु कटारिया आदि ने सभी संत-विद्वानों का स्वागत किया। युगपुरूष धाम बौद्धिक विकास केंद्र के दिव्यांग बच्चों ने श्रीमती कुसुम शर्मा के निर्देशन में गणेश वंदना, तांडव नृत्य एवं राष्ट्र वंदना स्वरूप सांस्कृतिक और रंगारंग प्रस्तुतियां देकर सबको मंत्रमुग्ध बनाए रखा।
युगपुरूष स्वामी परमानंदजी ने कहा कि जीवन में वाणी, विज्ञान और विश्वास की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वाणी से संवाद संप्रेषण और विज्ञान से सुविधाओं की सामग्री उपलब्ध होती है। रही बात विश्वास की, तो कई बार हम शास्त्र, गुरू या अन्य किसी व्यक्तित्व पर पूरा विश्वास नहीं कर पाते हैं। रामायण मंे अनेक विवादित चैपाईयां हैं। प्रधानमंत्री मोदी को भी थोड़ा स्वीकारा है, थोड़ा नहीं। गुरू और शास्त्र भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किए गए हैं लेकिन एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है जिस पर हमें पूर्ण विश्वास करना चाहिए।
यह विश्वास रखें कि ईश्वर जो कुछ करते हैं, अच्छा ही करते हैं लेकिन जब बुरा होता है तो वह अच्छा नहीं लगता। डाॅक्टर हमारी चीरफाड़ करते हैं तब कष्ट होता है लेकिन बाद में हमारा रोग दूर हो जाता है। ईश्वर का निर्णय गलत नहीं हो सकता लेकिन तात्कालिक रूप से हमें लगता है कि गलत हुआ है। हमारे जन्म के 84 और संन्यास के 63 वर्ष हो गए।
संन्यास का मतलब कामनाओं का त्याग है, कर्मों का नहीं। कामनाओं और जरूरत मंे अंतर है। रोटी, कपड़ा और मकान जरूरत है, कामना नहीं। गीता में सबसे ज्यादा महत्व कर्म को ही दिया गया है। कामना रहित कर्म ही हमें शांति, मोक्ष और अध्यात्म की राह पर ले जाते हैं। हमें स्वयं का निरीक्षण करना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं, वह कामना के लिए है या कर्म के लिए। हम सब कुछ न कुछ पाने की लालसाओं से भरे हुए हैं। संन्यास बाहर नहीं, अंदर से होना चाहिए।